Friday, September 11, 2009

अरमान और अंजुमन ...


अरमान,

नहीं, मैं नहीं, मेरे अरमान महान हैं । उनके लिए अपनी जिंदगी क्षीण होती देखने का अलग ही मज़ा है मानो, सामने ही अपनी अंजुमन लुटी जा रही हो और उसे लुटता देखने के नशे ने स्वयं की आंखों में इतनी मदिरा भर दी हो कि वास्तविकता की परछाई तक उसमे घुल के कहीं डूब गई हो और ऐसी डूबी हो कि उसके अस्तित्व ने अपने को कहीं दूर छुपा लिया हो, जहाँ शायद चाहत और प्रेम की सबसे फ़ीकी और सूक्ष्म किरण भी पहुँचने से इनकार कर चुकी हो, और वो भी सिर्फ़ सर नही अपितु पूरा ह्रदय हिलाकर, मानो कि उम्मीद का कोई ज़र्रा तक ज़िंदा न छोड़ना चाहती हो ।।

ख़ैर, आओ मिल के लूटते हैं इस अंजुमन को । बस कुछ देर और, और शायद इसके टूटे टुकडों कि गणना असंभव हो चुकी होगी ? कतरा कतरा क्षीण करने का मज़ा कैसा होगा ? आख़िरी धागा खींचने का सुकून तो अद्वित्य होगा ? ज़र्रे ज़र्रे की मौत ज़रूर देखने लायक होगी ? और, बूँद बूँद उबलने के बाद का दृश्य तो शायद भयानक ही होगा ??

सोच के रोम रोम खड़ा हो रहा है ना ? मानो, ज़िन्दगी नष्ट करने का मज़ा, उसे जीने से कयी गुना हो ।।

तो फ़िर आओ, मिल के लूटते हैं इस अंजुमन को । तुम्हारा स्वागत है ...

प्रेम,
अंजुमन